नवरात्रि हिंदू धर्म में एक प्रमुख त्यौहार है जो नौं दिन तक मनाया जाता है। देवी मां की भक्ति और उपासना का पर्व नवरात्रि पूरे देश में बहुत ही भक्ति भावना के साथ मनाया जाता है। नवरात्रि में नौं दिन तक माता की भक्ति और प्रार्थना की जाती है और रात्रि में जागरण पूजा की जाती है। इन नौ नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) करके माता को प्रसन्न किया जाता है। आज हम अपने लेख में नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) के अंतर्गत देवी कवच और अर्गला स्त्रोत के बारे में जानने का प्रयास करेंगें।
नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana)
नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) करने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य का हृदय शुद्ध होना चाहिए। नवरात्रि में पहले दिन अर्थात प्रतिपदा में सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि करके अपने पूजा स्थान को साफ स्वच्छ करना चाहिए। प्रतिपदा के दिन माता की चौकी और कलश स्थापना की जाती है। जलपात्र में जल रखा जाता है। माता के सामने अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है। गाय के गोबर से बने उपले को जलाकर अग्नि को प्रज्ज्वलित करके हवन कुंड में अग्नि को रखा जाता है। तत्पश्चात् माता का मंत्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे का उच्चारण करते हुए हवन सामग्री, लौंग, घी, मिष्ठान आदि अग्नि में अर्पित किए जाते हैं। नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) करते समय दिखावा, आडंबर के स्थान पर मां की भक्ति, शुद्ध आचरण और मन में प्रेमभाव होना आवश्यक है। नवरात्रि में नौं दिनों तक सुबह पूजा अर्चना और शाम को देवी माता की आरती उतारना चाहिए। यदि संभव हो सके तो श्री दुर्गासप्तशती से देवी कवच और अर्गला स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। नौ प्रकार की भक्ति या नवधा भक्ति nau prakaar kee bhakti ya navadha bhakti
दुर्गासप्तशती
दुर्गा सप्तशती हिंदू धर्म का प्राचीन और प्रमुख ग्रंथ है। दुर्गा सप्तशती में माता भगवती की कृपा और महिमा का वर्णन किया गया है। दुर्गासप्तशती बहुत विस्तृत ग्रंथ है परंतु नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) करते समय इस ग्रंथ में से देवी कवच और अर्गला स्तोत्र का नित्य पाठ किया जाए तो जीवन में शांति और सुख समृद्धि प्राप्त होती है। सर्वप्रथम सप्तश्लोकी दुर्गा का पाठ करना चाहिए इससे व्यक्ति के सभी रोगों , दुखों का नाश होता है और व्यक्ति परम शांति को प्राप्त होता है। अठारह स्मृतियों का परिचय – athaarah smrtiyon ka parichay
॥ अथ सप्तश्लोकी दुर्गा ॥
शिव उवाच –
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी। कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥
देव्युवाच —
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्। मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥
॥ विनियोगः ॥
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः,
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥1॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥2॥
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥3॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥4॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥5॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥6॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥7॥
॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ॥
देवी कवच
नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) करते समय जो मनुष्य देवी कवच का नित्य नौं दिनों तक पाठ करता है उस मनुष्य के सभी रोग, दुखों का अंत हो जाता है और वह व्यक्ति यश – कीर्ति को प्राप्त करता है। देवी कवच निम्न प्रकार से है — किशोरावस्था में भटकाव क्यों है और इसका निराकरण
अथ देव्याः कवचम्
ॐ श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता , अड्गंन्यासोक्तमातरो बीजम् , दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाड्गंत्वेन जपे विनियोगः।
॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥
ब्रह्मोवाच
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥2॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥3॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥4॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥5॥
अग्निता दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥6॥
न तेषा जायते किंचिदशुभं रणसंकटे। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥7॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धि प्रजायते। ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥8॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजसमानरूढा वैष्णवी गरुडासना॥9॥
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥10॥
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥11॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः। नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥12॥
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः। शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥13॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शांर्गमायुधमुत्तमम्॥14॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वस॥15॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। महावले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥16॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिन। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥17॥
दक्षिणेऽवतु वाराहीनैर्ऋत्यां खड्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥18॥
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेद्धस्ताद् वैष्णवी तथा ॥19॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जया में चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥20॥
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥21॥
मालाधारी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी। त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥22॥
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले च शांकरी॥23॥
नासिकायां सुगन्दा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥24॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥25॥
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमंगला। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥26॥
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू में व्रजधारिणी॥27॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चांगुलीषु च। नखांछूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥28॥।
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥29॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥30॥
कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥31॥
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी। पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥32॥
नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी। रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥33॥
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥34॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥35॥
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा। अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥36॥
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्। वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥37॥
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥38॥
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी। यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥39॥
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥40॥
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा। राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥41॥
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥42॥
पदमेकं न गच्छेतु यदीच्छेच्छुभमात्मनः। कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥43॥
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्। परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥44॥
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः। त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥45॥
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥46॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥47॥
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः। स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥48॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥49॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥50॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः। ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥51॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥52॥
यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले। जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥53॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥54॥
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्। प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥55॥
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥56॥
॥ इति देव्याः कवचं संपूर्णम् ॥
आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी – Adi Guru Sri Shankaracharya Ji
अर्गला स्तोत्र
नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) करते समय दुर्गासप्तशती में देवी कवच के बाद अर्गला स्तोत्र पढ़ने का विधान है। अर्गला का अर्थ है – अग्रणी या आगे रहने वाला। अर्गला स्तोत्र किसी कार्य में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करते कार्यसिद्धि प्रदान करने वाला है। जो मनुष्य नवरात्रि के नौ दिनों में अर्गला स्त्रोत का पाठ करता है उसके सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है। भारत में जैवविविधता के क्षय के कारणों की समीक्षा
अथार्गलास्तोत्रम्
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुऋषिः अनुष्टुप छन्दः श्रीमहालक्ष्मीर्देवता श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ॥
ॐ नमश्चण्डिकायै ॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते ॥१॥
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तुते ॥२॥
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥३॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥४॥
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥५॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥६॥
वन्दिताङघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥७॥
चिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥८॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरिताषहे ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥९॥
स्तुवदभ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१०॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥११॥
देहि सौभाग्यंमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१२॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१३॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१४॥
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१५॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१६॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१७॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१८॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥१९॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥२०॥
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥२१॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥२२॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥२३॥
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥२४॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम् ॥२५॥
इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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निष्कर्ष
वैसे तो मनुष्य को प्रत्येक दिन माता के नाम का स्मरण करना चाहिए लेकिन नवरात्रि में इसका महत्व बहुत ही बढ़ जाता है। वर्ष भर में नवरात्रि चार बार आती हैं दो बार जागृत अवस्था में और दो बार गुप्त अवस्था में आती हैं। वर्ष भर में नवरात्रि चार बार हिंदू धर्म के महीनों के अनुसार चैत्र, माघ, आषाढ़ और आश्विन मास में प्रतिपदा से नवमी तक बनाए जाते हैं इनमें माघ और आषाढ़ माह में की नवरात्रि गुप्त अवस्था में होतीं हैं। नवरात्रि में माता की पूजा अर्चना ( navaraatri mein maata kee pooja archana) बहुत शुद्ध भाव से करना चाहिए। नवरात्रि वास्तव में माता की भक्ति करके शक्ति प्राप्त करने का पर्व है।